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सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारत में एक नयी सभ्यता का जन्म हुआ जिसका उल्लेख वेदो में मिलने के कारण इसे वैदिक सभ्यता कहा गया। यह भारत की प्रथम ग्रामीण सभ्यता मानी जाती है।
वैदिक सभ्यता के संस्थापकों को वेदो में आर्य कहा गया है। आर्य संस्कृत भाषा के अरि + य शब्द से मिल के बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ - सुसंस्कृत या श्रेष्ठ या उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति होता है।
आर्य नार्डिक शाखा की सफ़ेद उपजाति से सम्बंधित मानव समूह को कहा गया है। आर्यो के मूल स्थानों को लेकर अलग अलग विद्वानों ने अलग अलग मत दिए है जो की निम्न लिखित है
1 बाल गंगाधर तिलक - उत्तरी ध्रुव ।
2 दयानन्द सरस्वती - तिब्बत ।
3 मैक्स मुलर - मध्य एशिया - इसे सबसे प्रामाणिक मत माना जाता है।
बोगाजकोई अभिलेख - 1400 ई. पु. के आस पास एशिया माइनर से प्राप्त हुआ इस अभिलेख की भाषा इंडो-ईरानी है। खोज 1907 में ह्यूगो के द्वारा की गई इस अभिलेख में चार ऋगवेदिक आर्य देवताओ का उल्लेख मिलता हे - इंद्र, वरुण, मित्र और नास्त्य इस अभिलेख से हमे सर्वप्रथम लोहकालीन सभ्यता की जानकारी मिलती है।
वैदिक सभ्यता - 1500 ई. पू से 600 ई. पु.
इस काल के दौरान आदिमानव के जीवन का प्रथम ग्रन्थ ऋग्वेद लिखा गया अतः इस काल को ऋग्वेदिक काल कहा गया
वैदिक साहित्य के रचियता - अपौरुषेय
वैदिक साहित्य के संकलनकर्ता - महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास
ऋग्वेदिक काल मे वदो की संख्या - 4
1 ऋग्वेद - इसमें श्लोक है जिससे देवताओ की स्तुति की गई है। ऋग्वेद को मानव जाती का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। इस वेद में कुल 10552 श्लोक 10 मंडल व 1028 सूक्त है। असतो मा सदगमय का उल्लेख व गायत्री मंत्र का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। गायत्री मंत्र सविता नमक देवता को समर्पित है।
2 - यजुर्वेद - इसमें यज्ञ हवन व कर्म कांड से सम्बंधित चीज़ो का उल्लेख है। यह वेद गद्य व पद्य दोनों में मिलता है अतः इसे चम्पू काव्य कहा जाता है। यजुर्वेद की दो शाखाए है - कृष्ण व शुक्ल।
3 सामवेद - सामवेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है। सबसे कम महत्व इसी वेद का माना जाता है
4 अथर्ववेद - इस वेद में जादू टोना टोटका से सम्बंधित क्रियाओ का उल्लेख मिलता हे। अतः इस वेद को लोकप्रिय धर्म प्रतिनिधित्व साबित करने वाला ग्रन्थ कहा गया है।
NOTE: ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद को सम्मिलित रूप से वेदत्रेय कहा जाता है। जबकि यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद उत्तरवैदिक काल की रचनाये है। सबसे नवीनतम वेद अथर्व को माना गया है।
वदो के अन्य महत्वपूर्ण तथ्य :
आरण्यक : वानप्रस्थ आश्रम के दौरान लिखे गए ग्रंथो को आरण्यक कहते हे। इसका शाब्दिक अर्थ वन होता है।
ब्राम्हण : वेदो की विशेष रूप से व्याख्या करने वाले ग्रंथो को ब्राम्हण कहा जाता है।
उपनिषद : इसका शाब्दिक अर्थ गुरु के साथ ध्यान पूर्वक बैठना होता है। कुल उपनिषदो की संख्या 108 मानी गयी है जिनमे से 12 उपनिषदों को मुख्या माना जाता है। सत्यमेव जयते - मुंडकोपनिषद से लिया गया है। जबकि हाल ही में लोकपाल बिल का प्रमुख वाक्य ईशोपनिषद से लिया गया है। उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है।
ऋग्वेद में 25 नदियों का उल्लेख मिलता है , जबकि सम्पूर्ण वेदो में कुल 31 नदियों का उल्लेख मिलता है।
आर्यो की सबसे महत्वपूर्ण नदी सिंधु नदी थी वह इस नदी के आसपास आकर बसे अतः उनके इस स्थान को सैंधव प्रदेश कहा गया।आर्य सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आकर बेस अतः इस सम्पूर्ण क्षैत्र को सप्त सैंधव प्रदेश कहा गया यूनानियों ने इसे हिंदुस्तान नाम दिया आर्यो की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नदी सरस्वती नदी थी जिसे नदीत्तमा कहा गया है
आर्यो की सबसे महत्वपूर्ण जनजाति भरत थी इसी आधार पर आगे चल कर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। आर्यो का स्थान होने के कारण परवर्ती ग्रंथो में भारत को आर्यवृत्त कहा गया है।
दाशराज्ञ युद्ध : भारत राजा सुदास व दस जानो के बिच रावी नदी (पुरूषणी) के किनारे युद्ध लड़ा गया। जिसे दाशराज्ञ युद्ध कहा जाता हे। इस युद्ध में भरत राजा सुदास विजयी रहे। यहाँ त्रित्सु वंश से सम्बंधित राजा थे।
परिवार पितृसत्तात्मक था मुख्या को गृहपति कहा जाता था।
खान पान सामान्य था - दुग्ध से निर्मित वस्तुओ का प्रयोग होता था। मीठे हेतु शहद का प्रयोग होता था। मांस मछली खाने से घृणा करते थे। गाय को न मरने योग्य कहा गया है। प्रमुख पेय पदार्थ के रूप में सोमरस का प्रयोग करते थे, जिसका उल्लेख ऋग्वेद के 9 वे मंडल में मिलता है।
NOTE : गाय वस्तु विनिमय का साधन था अर्थात गाय धन के रूप में कार्य करता था।
निवि - शरीर के निचले भाग को ढकने हेतु प्रयुक्त वस्त्र को निवि कहते थे
आधीवास - शरीर के ऊपरी भाग को ढकने हेतु प्रयुक्त वस्त्र को अधिवास कहते थे
अंतक - उन से बना हुआ वस्त्र
उष्णीय - पगड़ी को उष्णीय कहा जाता था
क्षोम - धनि वर्ग के द्वारा पहना जाने वाला विशेष वस्त्र।
स्त्रियों की स्तिथि सम्मानजनक थी उन्हें पुरुषो के सामान अधिकार प्राप्त थे जैसे। उपनयन व समावर्तन संस्कार। कई विदुषी महिलाओं के सश्त्रार्थ करने का उल्लेख मिलता है जैसे लोपामुद्रा, घोषा, श्रद्धा, अपाला, चंपा, विश्वश्वरा।
महिलाओ को विधवा विवाह, पुनर्विवाह, करने का अधिकार प्राप्त था, उन्हें नियोग करने की अनुमति भी प्राप्त थी। विवाह हेतु 16 या 17 वर्ष की आयु निर्धारित थी। 16 वर्ष तक आश्रम में रह कर अध्यन करने वाली व उसके बाद ग्रहस्त आश्रम में प्रवेश करने वाली महिला को सद्योवधु कहा जाता था, जब की आजीवन भ्रम्हचर्य का पालन करने वाली महिला को भ्रम्हवादिनी कहा जाता था।
जब की आजीवन अविवाहित रहने वाली महिला को अमाजू कहा था
सम्पूर्ण मानव जीवन को 100 वर्ष का मानते हुए इसे चार बराबर आश्रमों में विभाजित कर दिया गया।
NOTE इन चारो आश्रमों का उल्लेख जाबालो उपनिषद में मिलता है।
इसका उल्लेख ऋग्वेद के 10वे मंडल पुरुष सूक्त में है, जहा सम्पूर्ण समाज को 4 वर्णो में विभाजित कर दिया गया। ऋग्वेदिक काल में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी जबकि उत्तेरवादिक काल मे यह वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गयी। वर्णो की उत्पत्ति निम्न प्रकार से हुई है।
मुख - ब्राह्मण
भुजा - क्षत्रिय
जंघा - वैश्य
पैर - शूद्र
ऋग्वेदिक आर्य एकेश्वरवादीवादी थे, वह प्रकृति की पूजा करते थे। देवता तीन प्रकार के - पृथ्वी, धौस(आकाशीय देवता) और वरुण। पृथ्वी व धौस के मिलान से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है, तथा इन दोनों के बिच जो कुछ भी है उसमे वरुण का निवास माना गया है। वरुण को दैत्य देवता के रूप में पूजा जाता था।
आर्यो के सबसे प्रमुख देवता के रूप में इंद्रा का उलेख मिलता है। इंद्र को पुरंदर भी कहा जाता था, अर्थार्त किलो को तोड़ने वाला देवता। इसे आंधी तूफान व वर्षा का देवता कहा गया है। ऋग्वेद में सर्वाधिक 250 श्लोक इंद्र के लिए प्रयुक्त होते है।
दूसरे प्रमुख देवता के रूप में अग्नि का उलेख मिलता है। ऋग्वेद में अग्नि के लिए 200 श्लोक मिलते है। कई जगह इसके लिए 220 श्लोको का उलेख भी मिलता है।
विष्णु को संरक्षक के रूप में पूजा जाता था। प्रार्थनाओ का पितामह बृहस्पति को माना गया है। अद्वैतवाद का सिद्धांत शंकराचार्य के द्वारा दिया गया जबकि द्वैतवाद का सिद्धांत मध्वाचार्य के द्वारा दिया गया।
मुख्या व्यवासय कृषि व पशुपालन था। कृषि उल्लेख ऋग्वेद में ३३३ बार मिलता है। कृषि योग्य भूमि को उर्वरा या क्षेत्र कहा जाता था। भूमि पर सामूहिक अधिकार होता था। बिना जुटी हुई भूमि को खिल्य कहा गया। प्रमुख आनाज के रूप में यव (जौ), ब्रीहि (चावल), गोधूम(गेहू) का उल्लेख मिलता है।
राजा को कर के रूप में उपज का 1/6 भाग दिया जाता था। प्रजा अपनी स्वेच्छा से राजा को कुछ भेट प्रदान करती थी जिसे बलि कहा जाता था।
ऋण लेने पर अत्यदिक ब्याज लेने वाले सूदखोर को बेकनॉट कहा जाता था। व्यापारी हेतु पणी शब्द का उल्लेख मिलता है जो की मूलतः गयो के चोर होते थे।
निष्क नामक स्वर्ण मुद्रा का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे।
उत्तरवैदिक आर्यो का विस्तार गंगा यमुना दोआब क्षैत्र तक हो गया था। इस काल में सभा व समिति का अस्तित्व समाप्त हो गया। सभा को राजा की प्रिवी कौंसिल बना दिया गया। तथा राजा में देवत्व का निवास माना गया अर्थार्त राजा को देवताओ के प्रतिनिधि के रूप में पूजा गया। राजनैतिक जीवन राजा ने एक सुव्यवस्थित प्रशाशनिक तंत्र की स्थापना की जिसमे राजा की पटरानी से लेकर रथकार तक के लोग शामिल थ, जिन्हे सम्मिलित रूप से रत्निन कहा जाता था।
Important: राजा सहित कुल 12 रत्निन होते थे, जब की राजा के प्रमुख सहयोगियों रूप में 11 रत्निन थे जो की निम्नलिखित थे -
1 पुरोहित - राजा का प्रमुख सलाहकार
2 सेनानी - सेना का प्रमुख अध्यक्ष
3 सूत - राजा का रथवान व युद्ध के समय राजा का उत्साहवर्धन करता था।
4 ग्रामीणी - गांव का मुखिया।
5 संग्रहिता - कोषाध्यक्ष
6 अक्षवाप - पसे विभाग का प्रमुख तथा पसे के खेल में राजा का प्रमुख सहयोगी
7 पलागल - राजा का मित्र और राजा का विदूषक
8 गोविकर्तन - गयो का अध्यक्ष
9 क्षत्रि - राजप्रासाद का प्रमुख रक्षक
10 भागदूध - कर संग्रहिता
11 तक्षण - रथकार
12 महिषि - राजा की पटरानी
NOTE: कई विद्वानों के अनुसार ग्रामिणी व तक्षण को राजकृत अर्थात राजा द्वारा निर्मित बताया गया है। अतः राजा के अलावा अन्य रत्निनों की संख्या 11 ही मानी जाएगी।
बाबाता - दूसरी सबसे प्रिय रानी।
परिवृत्ति - उपेक्षित रानी।
शातिपति - 100 गावो का प्रशाशक
स्थपति - सीमांत गावो का प्रशाशक जो की मुख्य न्यायाधीश के रूप में भी कार्य करता था।
NOTE: शातिपति + स्थपति - ये दोनों राजा के रत्निनों में सम्मिलित नहीं थे
सबसे बड़ा परिवर्तन वर्ण व्यस्था में हुआ। समाज पूर्णतः 4 वर्णो में विभाजित हो गया। और वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गयी।
समाज में दो प्रकार के विवाह प्रचलन में आये:
1 अनुलोम विवाह - उच्च वर्ण के पुरुष के द्वारा निम्न वर्ण की महिला के साथ विवाह
2 प्रतिलोम विवाह - निम्न वर्ण के पुरुष के द्वारा उच्च वर्ण की महिला के साथ विवाह
विवाह 2 चरणो में सम्पादित होता था:
1 पाणीग्रहण संस्कार
2 सप्तपदी
उत्तरवैदिक काल में स्त्रियों की स्तिथि दयनीय थी । कन्या के जन्म को कष्ट का सूचक माना जाने लगा। इन कष्टों के निवारण हेतु अनेक प्रकार के यज्ञो का प्रचलन हुआ। जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार प्रचलन में आये
उत्तरवैदिक काल में धार्मिक जीवन में तर्क का उदय हुआ अतः स्वर्ग व नर्क की अवधारणा का उदय हुआ। देवमंडल की कल्पना की गयी तथा ब्रम्हा विष्णु और महेश की कल्पना भी की गयी।
अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलन में आये जैसे
1 राजसु यज्ञ - राजा के सिंहासन धारण करने के समय किया जाने वाला यज्ञ।
2 वाजपेय यज्ञ - राजा में देविय शक्तियों के आरोपण हेतु किया जाने वाला यज्ञ।
3 किरिरिस्ठ यज्ञ -अकाल के समय वर्षा हेतु किया जाने वाला यज्ञ।
4 पुत्रेष्टि यज्ञ - पुत्र की प्राप्ति हेतु किया जाने वाला यज्ञ।
5 अश्वमेध यज्ञ - राजा के चक्रवर्ती होने हेतु किया जाने वाला यज्ञ। इसमें पत्नी का होना अनिवार्य था।
NOTE : 4 पुरुषार्थो की कल्पना की गई - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष,
कृषि व पशुपालन पर आधारित था। उत्तरवैदिक काल के आर्य लोह से परिचित हुए। लोहे को कृष्ण या श्याम अयस कहा गया और ताम्बे को लोहित अयस कहा गया।
मुद्रा के रूप में शतमान, कृष्णल और पाद का उल्लेख मिलता है सबसे प्रचलित शतमान थी जिसका प्रयोग ब्राह्मणो को दक्षिणा देने में किया जाता था।
श्रेणी प्रथा का उल्लेख मिलता है। व्यापारियों हेतु श्रेष्टि गणपति व श्रेणीन शब्दों का उल्लेख मिलता है जबकि इन कबीलो के आगे चलने वाले व्यक्ति के लिए सार्थवाह शब्द का उल्लेख मिला है।
महाजनपद काल हम अगले अध्याय में पढ़ेंगे
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