दोस्तों अगर आपने पहले अध्याय नहीं पढ़े है तो chapter 4 आप यहाँ से पढ़ सकते है जिसमे हमने बड़ी ही सरल भाषा में मौर्य काल समजाया है।
गुप्त काल(300 ई. - 600 ई.) को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम काल कहा जाता है क्युकी इस काल के दौरान भारतीय कला एवं संस्कृति का विकास अपनी चरम सिमा को छू गया।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उत्तरी भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गयी जिसे एक बार पुनः स्थापित करने का प्रयास कुषाण व सातवाहन वंश के द्वारा किया गया परन्तु वह अपने क्षेत्रों तक ही सिमित रहे। गुप्तो को कुषाणो का सामंत कहा जाता है।
गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त को कहा जाता है, जिसका शासनकाल 275 ई. से 300 ई. माना गया है यह गुप्त वंश का प्रथम ऐसा शासक था जिसने महाराज की उपाधि धारण की।
श्रीगुप्त के बाद शासक गटोतघच बना , इसके बारे में कोई भी अन्य जानकारी नहीं मिलती है।
चन्द्रगोमिन के व्याकरण में गुप्ता को जर्ट (जाट) कहा गया है। जबकि चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त ने अपने पूना ताम्र पत्र में धारण गौत्र का उल्लेख किया है। जो की उसके पिता की गौत्र रही होगी। क्युकी उसके पति वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय विष्णुवृध्दि गौत्र के ब्राह्मण थे।
गुप्तों की उत्पत्ति से सम्बंधित अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत दिए है।
इसे गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक मन जाता है। यह गुप्त काल का ऐसा शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। इसने लिच्छिवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया इस विवाह की पुष्टि उसके द्वारा चलाये गए कुमारदेवी प्रकार के सोने के सिक्को से होती है। इस विवाह उपरांत चन्द्रगुप्त प्रथम को पाटलिपुत्र दहेज़ में मिला जिसे गुप्तो ने अपनी राजधानी बनाया
NOTE : गुप्त वंशवली में यह पहला शासक था जिसके सोने के सिक्के प्राप्त होते है । इसने अपने राज्यारोहण के दिन 9 मार्च 319 ई को एक नया गुप्त सम्वत चलाया
समुद्रगुप्त के बारे में जानकारी प्रयाग प्रशस्ति से मिलती है। जिसकी रचना उसके दरबारी कवी हरिसेन के द्वारा की गयी प्रयाग प्रशस्ति को उत्कीर्ण का श्रेय तिलभट्ट को जाता है। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को 100 युद्धो का विजेता बताया है। अतः विन्सेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की कविराज उपाधि का वर्णन मिलता है।
प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के युद्धों का वर्णन मिलता है तथा उसके द्वारा अपने गयी नीतियों का भी उल्लेख हुआ है जो की निम्न प्रकार थी -
समुद्रगुप्त की इन समस्त विजयो का उद्देश्य धरणिबंध था अर्थार्त सम्पूर्ण भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में बांधना।
एरण अभिलेख में समुद्रगुप्त को रुष्ठ(क्रोधित) होने पर उसे यमराज के सामान जबकि प्रसन्न होने पर उसे कुबेर के सामान बताया गया है। इसी अभिलेख में समुद्रगुप्त की पत्नी का नाम दत्त देवी बताया गया है।
समुद्रगुप्त के सिक्को पर उसे लिच्छिवि दोहित्र कहा गया है। गुप्तकालीन सिक्को के ढेर राजस्थान में बयाना (भरतपुर) से प्राप्त हुए है।
चन्द्रगुप्त II की उपाधिया: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की उपाधिया निम्नलिखित है -
अप्रतिरथ : जिसके विजयरथ को रोका नहीं जा सकता। सम्पूर्ण गुप्त शासको में समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त II को ही यह उपाधि प्राप्त थी।
परमभागवत : गुप्त वंश में यह उपाधि धारण करने वाला प्रथम शासक था। इसके अलावा इसे देवगुप्त, देवश्री, देवराज, विक्रमांक, श्री विक्रम सिंह उपाधिया भी प्राप्त थी।
विशाखदत्त के नाटक देवीचंद्रगुप्तम में समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त II के बिच एक निर्बल शासक के रूप में रामगुप्त का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त II ने रामगुप्त की हत्या कर ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लिया। सर्वप्रथम 1924 में राखल दस बनर्जी ने रामगुप्त की ऐतहासिकता सिद्ध करने का प्रयास किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया। इसी विवाह से इसे प्रभावती नामक पुत्री प्राप्त हुई प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन II के साथ किया गया इसी रुद्रसेन की सहायता से चन्द्रगुप्त II ने पस्चिमी भारत से शैको का पूर्णतः उन्मूलन करदिया अर्थात चन्द्रगुप्त II को शकारी कहा जाता है।
शैको पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में चन्द्रगुप्त II ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की तथा व्यग्र प्रकार के चांदी के सिक्के चलाये ऐसा करने वाला वह प्रथम शासक था
चन्द्रगुप्त II के शासन काल में 399 ई. से लेकर 414 ई. तक फाहियान आया इसने अपने ग्रन्थ फ़ो-को -की में चन्द्रगुप्त II का उल्लेख नहीं किया है। इसमें लिखा हे की मध्यदेश के लोग व्यापर हेतु कोडियो का प्रयोग करते थे। फाहियान ने गुप्त कालीन न्याय व्यवस्था के लिए लिखा हे की गुप्त काल के दौरान न्याय कठोर नहीं था, परन्तु बार बार अपराध करने पर अपराधी का दाहिना हाथ काट लिया जाता था।
चन्द्रगुप्त II के बारे में मेहरोली(दिल्ली) के लोह स्तम्ब से भी जानकारी प्राप्त होती है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में 9 विद्वानों की एक मंडली निवास करती थी जिसे नवरत्न कहा जाता था जो निम्नलिखित हे । कालिदास, धन्वंतरि, क्षपणक, बेतालभट्ट, अमरसिंह, घटकर्पर, शंकु, वररुचि, वराहमिहिर
सम्पूर्ण गुप्त वंश के शासको की वंशवली बिल्सड़ अभिलेख(UP) से प्राप्त होती है। गुप्त काल में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के में ही लगाए गए।
तुमेन अभिलेख में इसे शरदकालीन सूर्य की भाती शांत कहा गया है। गुप्त वंश का प्रथम ऐसा शासक था जिसके तीन (ताम्रपत्र) अभिलेख बंगाल से भी प्राप्त होते है, दामोदरपुर धनदेह और वेग्राम। यह गुप्त वंश का ऐसा शासक था जिसने गुप्तकालीन सिक्को पर गरुड़ के स्थान पर मयूर का अंकन करवाया, जिससे गुप्त शासको के शैव होने का भी प्रमाण मिलता है।
Important: नालंदा विष्व विद्यालय की स्थापना की गयी जिसे महायान बौद्ध धर्म का ऑक्सफ़ोर्ड कहा जाता है।
NOTE: चतुर्थ संगीति का आयोजन कुषाण शासक कनिष्क शासन काल में कश्मीर के कुण्डलवन में किया गया। इस बौद्ध संगीति में बौध्द धर्म दो भागो में विभाजित हो गया, हीनयान और महायान। महायानो का नेता नागार्जुन था जिसने शून्यवाद का सिद्धांत दिया। नागार्जुन को भारत का einstein कहा जाता है।
नालंदा विश्वविद्यालय में धर्मगंज नमक पुस्तकालय है जो की तीन भागो में विभाजित है, रत्नरंजक रत्नोदधि व रत्नासागर
इसने हुनो के आक्रमण को निष्फल किया जिसका उल्लेख भीतरी अभिलेख (UP) में मिलता है। इसने सुदर्शन झील का पुनर निर्माण करवाया। इसके शासन काल में सोने के सिक्को का वजन सर्वाधिक था। क्युकी सोने के सिक्को में सर्वाधिक मिलावट इसी के शासनकाल में हुई। इसने परमभागवत की उपाधि धारण की। इसकी मृत्यु के साथ ही गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया।
स्कंदगुप्त के बाद : पुरुगुप्त , कुमारगुप्त II, बुधगुप्त, नरसिंहगुप्त, वलादित्य , व भानुगुप्त।
510 ई. के भानुगुप्त के एरण अभिलेख में पहली बार सती प्रथा का उल्लेख मिलता है। भानुगुप्त के सैनिक गोपराज की पत्नी के सती होने का उल्लेख है।
प्राचीन काल से चली आ रही उपाधिया जैसे राजन इत्यादि को त्याग कर नयी उपाधिया धारण की
राज्यो में :
केंद्र में :
गुप्ता की राजधानी पाटलिपुत्र रही परन्तु चन्द्रगुप्त II के शासन काल में द्वितीय राजधानी के रूप में उज्जैन था जबकि स्कंदगुप्त के समय में इसे अयोध्या स्थान्तरित किया गया था।
गुप्त काल में पहली बार राजस्थानीय शब्द का उल्लेख मिलता है। जो की पश्चिमी क्षेत्रो के शासको के लिए प्रयुक्त किया जाता था।
गुप्तो का राजचिन्ह गरुड़ था। राजा का पद वंशानुगत था परन्तु जयेष्ठाधिकार नहीं था।
गुप्तकाल में मंत्रिपरिषद का विस्तृत विवरण नहीं मिलता है, परन्तु फिर भी कुछ अधिकारियो के नाम मिलते है। जैसे
पदसंख्या 2 3 व 4 समुद्रगुप्त के समय हरिषेण के पास थे जब की चन्द्रगुप्त II के समय यह पद हरिषेण के पुत्र वीरषेण के पास थे।
प्रांतीय प्रशासन:
ग्राम सभा को मध्यभारत में पंचमंडली कहा जाता था।
गुप्तकालीन राजस्व व्यवस्था कृषि व पशुपालन पर आधारित थी। व्यापर में कमी आयी। लम्बी दुरी के व्यापर लगभग समाप्त हो गए थे।
सम्पूर्ण भूमि का स्वामी राजा होता था। राजा को उपज का कुल 1/6 भाग कर के रूप में मिलता था। जिसे "भाग" कहा जाता था।
अन्य कर :
भूमि के प्रकार :
सिक्के
प्राचीन भारत में सर्वाधिक सोने सिक्के गुप्त काल में चले। यह सिक्के कुषाणों की नक़ल पर बनाये गए थे। चांदी के सिक्के को रुपियक व सोने के सिक्को को दीनार कहा जाता था . इन सिक्को पर सर्वाधिक अंकन गरुड़ का मिलता है। इसके अलावा मयूर, राजा, कार्तिके और वृषभ
समाज 4 वर्णो में विभाजित था। गुप्त काल में पहेली बार शुद्रो की स्तिथिया सुधरी उन्हें महाभारत व पुराण सुनने का अधिकार मिला। शुद्रो को सैनिक कार्यो में लगाया जाता था। गुप्त काल में वर्ण व्यवस्था में सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ।
एक नया वर्ण चांडाल विकसित हुआ, जो की ग्राम से बहार निवास करता था। तथा ग्राम में प्रवेश करते समय यह ढोल बजाते हुए आते थे। ताकि लोग इनसे दूर हैट जाये। अतः समाज में अस्पर्शयता का जन्म हुआ।
स्त्रियों की स्तिथि ठीक नहीं थी क्योकि सती प्रथा का उल्लेख में मिलता है। महाभारत में स्त्रियों के बिना जीवन को शुन्य मन गया है।
गुप्त काल को हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान काल मन जाता है। इस कल में हिन्दू धर्म के 2 प्रमुख संप्रदाय वैष्णव व शैव का सर्वाधिक विकास हुआ। भानुगुप्त का एरण अभिलेख विष्णु की स्तुति से प्रारम्भ होता है।
लक्ष्मीनारायण की पूजा गुप्त काल की देन है।
शिव पारवती की सम्मिलित मुर्तिया तथा उन्हें अर्धनारीश्वर के रूप में गुप्त काल में पूजा गया।
ब्रह्मा विष्णु व महेश की त्रिमूर्ति के रूप में पूजा। चतुर्मुखी तथा षड्मुखी शिवलिंग की पूजा गुप्त काल की देन है।
IMPORTANT: महाभारत व पुराणों का वर्त्तमान स्वरुप जो हमे देखने को मिलता है, गुप्त काल की देन है।
बौद्ध धर्म व जैन धर्म - तीसरे प्रमुख धर्म के रूप में सबसे प्रमुख धर्म बौद्ध धर्म था। फाहियान ने खोतान व नालंदा को बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा केंद्र बताया है।
सुल्तानगंज से बुद्ध की साढ़े सात फिट ऊँची काँसे की प्रतिमा प्राप्त हुई है। मथुरा से खड़े बुद्ध की प्रतिमा व सारनाथ से बैठे बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है।
जैन धर्म की द्वितीय जैन संगीति का आयोजन गुजरात के वल्लभी नगर में किया गया। जिसकी अध्यक्षता क्षमाश्रवण / देवदारधीनी के द्वारा की गयी।
गुप्त काल में पहेली बार मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ अर्थात भारत में एक नयी वास्तु कला ने जन्म लिया। वास्तुकला हेतु निम्नलिखित शैलिया प्रचलित थी :
तक्षण : छेनी व हतोड़े के माध्यम से मूर्तियों का निर्माण तक्षण कहलाता है।
सिलावट : मूर्ति का निर्माण करने वाले कलाकार।
अजंता एलोरा की गुफा :
यह महाराष्ट्र के अजंता(अनिष्ठा) नामक ग्राम के पास स्तिथ है। इसमें कुल २९ गुफाएं है जिसमे से गुफा संख्या 16 व 17 गुप्तकालीन है। इन गुफाओ की खोज 1819 मै मद्रास रेजिमेंट के एक सैनिक सर अलेक्सजेंडर के द्वारा की गयी। इन गुफाओ का निर्माण वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन के आदेश पर उसके सामंत व्याग्रदेव द्वारा करवाया गया। इन गुफाओ का आकर घोड़े के खुर (नाल) के सामान है। 1983 में इसे विष्व विरासत सूचि में सम्मिलित करलिया गया।
कालिदास: कालिदास को भारत का शेक्शपिअर कहा जाता है। कालिदास के 3 प्रमुख नाटक : मालविकाग्निमित्रम , विक्रमोवर्शियम, अभिज्ञानशाकुंतलम। 2 प्रमुख महाकाव्य : रघुवंशम, कुमार सम्भवम। और 2 प्रमुख खंडकाव्य : ऋतूसंहार, मेघदूत।
आर्यभट्ट : यह 5वि शताब्दी के महान गणितज्ञ ज्योतिषविद / खगोलविद माने जाते है। यह कुसुमपुर के निवासी थे। इन्होने आर्यभट्टीयम नामक ग्रन्थ लिखा। जिसके चार भाग थे।
आर्य भट्ट प्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कहा की पृथ्वी गोल है। तथा सूर्य के चारो ओर घूर्णन करती है इसी कारन दिन और रात बनते है। आर्यभट्ट ने सबसे पहले ग्रहण के बारे में बताया। उन्होंने दशमलव पद्दति, जीवा का मान, व पाई का मान 3.14 बताया।
वराहमिहिर : इन्होने बारह राशियों का सिद्धांत दिया। इन्होने कुछ ग्रन्थ लिखे है जैसे पंचसिद्धान्तिक , वृहज्जातक, लाघुज्जातक, वृहतसंहिता। वराहमिहिर ने पहली बार पृथ्वी की आकर्षण शक्ति की बात कही।
ब्रम्हगुप्त : इसके ग्रन्थ - ब्रम्हसिद्धान्तिका , खंड खाद्यक। ब्रह्मगुप पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बारे में बताया।
अमरसिंघ : अमरकोश
विष्णु शर्मा : पांच तंत्र => सर्वाधिक भाषाओ में अनुवादित।
वात्स्यायन : कामसूत्र।
शूद्रक : मृच्छकटियम (मिटटी की गाड़ी)
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